Sunday 4 September 2011

मनमानी का इलाज

गरीबों को मुफ्रत इलाज को लेकर निजी अस्पताल लंबे समय से आनाकानी करते रहे हैं। सरकार और अदालत के निर्देशों के बावजूद उन्होंने शर्तों और अनुबंध् की परवाह नहीं की। कुछ साल पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि जो निजी अस्पताल गरीबों के मुफ्रत इलाज संबंध्ी शर्तों का पालन नहीं करते उनसे जमीन वापस ले ली जानी चाहिए। इन अस्पतालों ने सरकार से इस अनुबंध् पर सस्ती जमीन हासिल की थी कि वे अपने यहां पच्चीस पफीसद बिस्तर गरीबों के लिए आरक्षित रखेंगे और उन्हें मुफ्रत चिकित्सा सुविधएं उपलब्ध् कराएंगे। मगर दिल्ली होईकोर्ट के आदेश को उन्होंने इस तर्क के साथ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी कि कई निजी अस्पताल कैंसर हृदय रोग आदि से संबंध्ति विशिष्ट चिकित्सा सुविधएं मुहैया कराते हैं। इन रोगों का इलाज खासा खर्चीला है, इसलिए गरीबों की ये सेवाएं मुफ्रत उपलब्ध् कराना संभव नहीं है। इन शर्तों के पालन से निजी अस्पतालों को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही उन्हें पफटकार लगाई कि इन बातों को सरकार के साथ अनुबंध् पर हस्ताक्षर करने से पहले सोचना चाहिए था। गरीबों के इलाज पर हुए खर्च की भरपाई किस तरह करनी है, इसका रास्ता उन्हें खुद निकालना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा आदेश के बाद निजी अस्पतालों के कन्नी काटने का कोई रास्ता नहीं बचा है। मगर देखना है वे इसका कितना पालन करते हैं, और यह भी कि सरकार इस मामले में किस हद तक निगरानी रख पाती है। दरअसल, निजी अस्पतालों को सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली से बल मिला है। सरकारी अस्पतालों में सुविधओं, कुशल चिकित्सकों, जरूरी उपकरणों, दवाओं आदि के अभाव के चलते लोग मामूली परेशानियों में भी वहां इलाज कराने को इच्छुक नहीं होते।
निजी अस्पताल इस पहलू से अच्छी तरह वाकिपफ हैं। इसलिए खासकर कैंसर, हेपेटाइटिस, हृदय रोग आदि के मामलों में वे मनचाही रकम वसूलने से बाज नहीं आते। उनकी इस प्रवृत्ति पर कई बार उंगलियां उठ चुकी हैं। इस पर अंकुश लगाने की सरकार को कोशिश कभी कामयाब नहीं हो पाई। दरअसल, निजी स्कूलों की तरह निजी अस्पताल भी खासे ताकतवर हो चुके हैं। इसलिए यह कयास बेबुनियाद नहीं कहा जा सकता कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद सै(ांतिक रूप से वे गरीबों के मुफ्रत इलाज की शर्तों के पालन को भले तैयार हो जाएं, पर अनुबंध् से जिस मकसद के पूरा होने की उम्मीद की गई थी उसे हाशिए पर ठेल दें। स्कूलों को जमीन आबंटित करते वक्त भी यह शर्त रखी गई थी कि वे अपने यहां पच्चीस पफीसद सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित रखेंगे। अदालत और सरकार के दबाव में उन्होंने इसे स्वीकार तो कर लिया, मगर कई स्कूल ऐसे बच्चों के लिए अलग से कक्षाएं लगाने लगे। निजी अस्पताल भी खैराती वार्ड जैसा कोई तरीका न निकाल लें, इस पर ध्यान रखना होगा।
हमारे यहां लाखों लोग चिकित्सा के अभाव में दम तोड़ देते हैं, बहुत सारे लोगों को इलाज के लिए अपना घरबार बेच देना या कर्ज लेना पड़ता है। मगर इन स्थितियांे के प्रति साध्न-संपन्न अस्पताल संवेदनशील नहीं दिखते। इसीलिए उन पर यह आरोप लगता रहा है कि उन्हें बस कमाई बढ़ाने से मतलब है। चिकित्सा-कर्म निरा व्यवसाय नहीं है, उसके साथ मानवीय सरोकार हमेशा जुड़े रहे हैं। पिफर एक निश्चित संख्या में गरीबों के इलाज की अपेक्षा उनसे परोपकार के तौर पर नहीं की गई थी, यह वादा उन्होंने रियायती दर पर मिली जमीन के एवज में खुद किया था। इसलिए उन्हें आगे इस मामले में शिकायत का मौका नहीं देना चाहिए।

Saturday 3 September 2011

महंगाई की तरप

यूपीए के दूसरी बार सत्तासीन होने के समय से ही महंगाई का सिलसिला बना हुआ है। विडंबना यह है कि महंगाई से राहत मिलना तो दूर, वह अब और बढ़ी हुई दिखाई देती है। ताजा आकलन के मुताबिक खाने-पीने की चीजों की महंगाई दस पफीसद से भी कुछ उफपर पहुंच गई है। पिछले पांच महीनों में पहली बार ऐसा हुआ है। यही भी गौरतलब है कि यह आंक़ा थोक सूचकांक पर आधरित है। जबकि लोगों का वास्ता खुदरा कीमतों से होता है। यानी आम लोग जिस महंगाई का दंश झेल रहे हैं वह और भी कष्टदारी है। यह बता ध्यान में रहनी चाहिए कि गरीब परिवारों का ज्यादातर खर्च पेट भरने पर होता है। यानी खाद्य वस्तुओं की महंगाई की सबसे ज्यादा मार उन्हीं पर पड़ती है। हमारे देश की कुल श्रम शक्ति का नब्बे पफीसद से ज्यादा हिस्सा असंगठित क्षेत्रा के लोगों का है, जिनकी आय में बहुत मामूली गति से बढ़ोतरी होती है। महंगाई के कारण उनका खर्च तो बढ़ता जाता है, पर उसकी भरपाई करने लायक पैसा उनके पास नहीं आता।
इसलिए उचित ही कई अर्थशास्त्राी महंगाई को गरीबों पर अघोषित टैक्स कहते हैं। पिछले दिनों इस तरह के आंकड़े भी आए हैं कि बहुत-से ऐसे परिवार जो पहले गरीबी रेखा से उफपर थे, महंगाई की वजह से गरीबी रेखा से नीचे चले गए। जाहिर है, महंगाई केवल बाजार की हलचल का आईना नहीं है, यह विषमता के और बढ़ने की भी सूचना देती है। महंगाई हमेशा राजनीतिक रूप से एक संवेदनशील मुद्दा रही है। इसलिए मानसून सत्रा शुरू हुआ तो विपक्ष ने सबसे वहले महंगाई पर चर्चा कराने के लिए सरकार को विवश किया, और वह भी ऐसे नियम के तहत जिसमें मतदान का प्रावधन हो। लेकिन इस बहस का लब्बोलुआब यह रहा कि बिना सरकार की जवाबदेही तय किए, सिर्पफ महंगाई पर चिंता जता कर पूरी हो गई। प्रस्ताव पर मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने सत्तापक्ष के साथ मतदान किया। पिफर यह मान लिया गया कि सरकार जल्द ही इस मोर्चे पर कोई ठोस पहल करेगी। लेकिन ताजा आंकड़ों ने बता दिया है कि हालत सुध्रने के बजाय और खराब हुई है। अब इस बात के आसार जताए जा रहे हैं कि कुछ दिनों बाद यह रिजर्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति की समीक्षा करेगा तो ब्याज दरें एक बार पिफर बढ़ाई जा सकती हैं। रिजर्व बैंक ने पिछले साल अप्रैल से रेपो और रिवर्स रेपी दरों में लगातार बढ़ोतरी की है।
लेकिन मूल्य नियंत्राण के नाम पर उठाए गए इन कदमों को हासिल क्या रहा ?महंगाई तो थमी नहीं, अलबत्ता आवास या किसी और मकसद से लिए गए बैंक-ट्टण पर पहले से अध्कि मासिक भुगतान के लिए बहुत-से लोग विवश कर दिए गए। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक पर बुरा असर पड़ने और नए निवेश में कमी आने की आशंका भी किसी हद तक सही साबित हुई है। ऐसा लगता है कि सरकार ने महंगाई से निपटने का अपना जिम्मा रिजर्व बैंक के मत्थे मढ़ दिया है, जबकि मौद्रिक उपायों की संभावना का कापफी दोहन हो चुका है। कई चीजों के दाम सटोरियों के कारण बहुत तेजी से बढ़े हैं। प्याज इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, जिसका दाम दो महीने में चालीस पफीसद तक बढ़ा है। दूध् के और महंगा होने की बड़ी वजह पशु आहार की कीमत में बढ़ोतरी होना है। लेकिन खली के निर्यात पर रोक लगाने की मांग पर विचार करने के लिए सरकार अभी तक राजी नहीं है। महंगाई से निपटने के लिए एक बार पिफर मौद्रिक नीति का सहारा लेने के बजाय सरकार को बेहतर भंडारण, आपूर्ति सुधरने और जमाखोरी, कालाबाजारी पर अंकुश लगाने की तत्परता दिखानी चाहिए।