गरीबों को मुफ्रत इलाज को लेकर निजी अस्पताल लंबे समय से आनाकानी करते रहे हैं। सरकार और अदालत के निर्देशों के बावजूद उन्होंने शर्तों और अनुबंध् की परवाह नहीं की। कुछ साल पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि जो निजी अस्पताल गरीबों के मुफ्रत इलाज संबंध्ी शर्तों का पालन नहीं करते उनसे जमीन वापस ले ली जानी चाहिए। इन अस्पतालों ने सरकार से इस अनुबंध् पर सस्ती जमीन हासिल की थी कि वे अपने यहां पच्चीस पफीसद बिस्तर गरीबों के लिए आरक्षित रखेंगे और उन्हें मुफ्रत चिकित्सा सुविधएं उपलब्ध् कराएंगे। मगर दिल्ली होईकोर्ट के आदेश को उन्होंने इस तर्क के साथ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी कि कई निजी अस्पताल कैंसर हृदय रोग आदि से संबंध्ति विशिष्ट चिकित्सा सुविधएं मुहैया कराते हैं। इन रोगों का इलाज खासा खर्चीला है, इसलिए गरीबों की ये सेवाएं मुफ्रत उपलब्ध् कराना संभव नहीं है। इन शर्तों के पालन से निजी अस्पतालों को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही उन्हें पफटकार लगाई कि इन बातों को सरकार के साथ अनुबंध् पर हस्ताक्षर करने से पहले सोचना चाहिए था। गरीबों के इलाज पर हुए खर्च की भरपाई किस तरह करनी है, इसका रास्ता उन्हें खुद निकालना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा आदेश के बाद निजी अस्पतालों के कन्नी काटने का कोई रास्ता नहीं बचा है। मगर देखना है वे इसका कितना पालन करते हैं, और यह भी कि सरकार इस मामले में किस हद तक निगरानी रख पाती है। दरअसल, निजी अस्पतालों को सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली से बल मिला है। सरकारी अस्पतालों में सुविधओं, कुशल चिकित्सकों, जरूरी उपकरणों, दवाओं आदि के अभाव के चलते लोग मामूली परेशानियों में भी वहां इलाज कराने को इच्छुक नहीं होते।
निजी अस्पताल इस पहलू से अच्छी तरह वाकिपफ हैं। इसलिए खासकर कैंसर, हेपेटाइटिस, हृदय रोग आदि के मामलों में वे मनचाही रकम वसूलने से बाज नहीं आते। उनकी इस प्रवृत्ति पर कई बार उंगलियां उठ चुकी हैं। इस पर अंकुश लगाने की सरकार को कोशिश कभी कामयाब नहीं हो पाई। दरअसल, निजी स्कूलों की तरह निजी अस्पताल भी खासे ताकतवर हो चुके हैं। इसलिए यह कयास बेबुनियाद नहीं कहा जा सकता कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद सै(ांतिक रूप से वे गरीबों के मुफ्रत इलाज की शर्तों के पालन को भले तैयार हो जाएं, पर अनुबंध् से जिस मकसद के पूरा होने की उम्मीद की गई थी उसे हाशिए पर ठेल दें। स्कूलों को जमीन आबंटित करते वक्त भी यह शर्त रखी गई थी कि वे अपने यहां पच्चीस पफीसद सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित रखेंगे। अदालत और सरकार के दबाव में उन्होंने इसे स्वीकार तो कर लिया, मगर कई स्कूल ऐसे बच्चों के लिए अलग से कक्षाएं लगाने लगे। निजी अस्पताल भी खैराती वार्ड जैसा कोई तरीका न निकाल लें, इस पर ध्यान रखना होगा।
हमारे यहां लाखों लोग चिकित्सा के अभाव में दम तोड़ देते हैं, बहुत सारे लोगों को इलाज के लिए अपना घरबार बेच देना या कर्ज लेना पड़ता है। मगर इन स्थितियांे के प्रति साध्न-संपन्न अस्पताल संवेदनशील नहीं दिखते। इसीलिए उन पर यह आरोप लगता रहा है कि उन्हें बस कमाई बढ़ाने से मतलब है। चिकित्सा-कर्म निरा व्यवसाय नहीं है, उसके साथ मानवीय सरोकार हमेशा जुड़े रहे हैं। पिफर एक निश्चित संख्या में गरीबों के इलाज की अपेक्षा उनसे परोपकार के तौर पर नहीं की गई थी, यह वादा उन्होंने रियायती दर पर मिली जमीन के एवज में खुद किया था। इसलिए उन्हें आगे इस मामले में शिकायत का मौका नहीं देना चाहिए।